ध्यान केन्द्र और परिधि का तालमेल
सत्य अस्तित्व का गहनतम रहस्य है और ये अस्तित्व का सबसे सुंदर उपहार भी है हमारे लिए । और अस्तित्व हर वक़्त, हर क्षण आतुर रहता है ये उपहार हमें देने के लिए । फिर भी हम इससे महरूम से, वंचित से महसूस करते हैं । क़ुरान कहती है कि अल्लाह हमारी शहरक से भी हमारे नज़दीक है । इतनी समीपता के बाद भी ये दूरी क्यों महसूस होती है हमें ? हम तड़पते हैं उसे पाने के लिए, और जितना पाना चाहते हैं ये उतना ही दूर हमसे जाता जाता है । फिर हम दुविधा में पड़ते हैं कि अस्तित्व हमसे इतना प्रेम भी करता है, हमें वो सब देना भी चाहता है फिर ये दूरी, ये जद्दोजहद क्यों ? कारण क्या है इस विरोधाभास का ?

दरअसल हम कभी ये जानने का प्रयास नहीं करते हैं कि क्या हमने उस उपहार को पाने की पात्रता पैदा की है अपने अंदर जो कि हमेशा उपलब्ध है ? क्या हम इस स्तिथि में हैं कि यदि वो उपहार हमें मिले तो हम उसे संभाल पाएँ ? क्या हम उपस्थित हैं ? सत्य तो उपलब्ध है, लेकिन क्या हम उपलब्ध हैं इस सत्य को ग्रहण करने के लिए ? हमारी ग्रहणशीलता कितनी है ? कहते हैं कि प्रेम, सत्य, आनंद ये सब कुछ बेशर्त हैं, अंकंडीशनल हैं । तो फिर हमें मिलता क्यों नहीं ? इस बात को मैं दोहराता हूँ कि क्या हम वहाँ हैं ? क्या हम ग्रहणशील हैं ?

ओशो
कहते हैं कि सत्य हमारी बहुत सारी आकांक्षाओं, तमन्नाओं, ख्वाहिशों में से एक है । हम कितनी कामनाओं से भरे हुए हैं, कितनी लालसाओं से भरे हुए हैं ! और उन लालसाओं की भीड़ में से कहीं सत्य को थोड़ा सा स्थान दे देते हैं अपने अंदर ताकि जब कभी मौक़ा मिले, उन आकांक्षाओं का पीछा करते-करते जब कभी थक जाएँ, तो थोड़ा सा सत्य पर भी ज़ोर लगा लें । ओशो कहते हैं कि जब तक सत्य हमारी एकमात्र खोज नहीं बन जाता तब तक वो हमें कभी उपलब्ध नहीं होगा । जब तक सत्य के लिये हमारे प्राण इतनी प्यास से ना भर जाएँ कि सत्य ना मिले तो मृत्यु का आभास होने लगे, जब तक हमारी बीइंग का, हमारे प्राणों, का एक-एक कण, एक-एक क़तरा उसे पाने के लिए आतुर ना हो उठे, बेचैन ना हो उठे, तब तक सत्य हमें उपलब्ध नहीं होगा । क्योंकि सत्य इतनी सस्ती चीज़ नहीं है कि इतनी आसानी से उपलब्ध हो जाये । उसके लिये तो प्राणों की बाज़ी लगानी पड़ती है । सब कुछ दाँव पर लगाना पड़ता है, अपने आप को उढ़ेलना पड़ता है, तब कहीं सत्य उपलब्ध होता है । यही पात्रता है । हर व्यक्ति अपने आप से ये पूछे, “क्या मैं तैयार हूँ ? क्या मैं वहाँ मौजूद हूँ उस सत्य को ग्रहण करने के लिये ? या अपने सपनों के पीछे भागते-भागते अपने से दूर जा चुका हूँ ?” जो अपने से ही दूर है उसे ये उपहार ग्रहण करने का समय भी कहाँ है ? तो सबसे पहले पात्रता की बात होती है । वो पात्रता केवल उसकी होती है जो सब कुछ दाँव पर लगाने के लिये तैयार हो । सब कुछ दाँव पर लगाने का अर्थ है: ये समझ पैदा करना कि सत्य की खोज में हमें किस-किस चीज़ की आवश्यकता होगी । किस-किस ओर हमें ध्यान देना होगा । किस प्रकार से जीवन-शैली ढालनी होगी । इन सारी तैयारियों का एक अहम हिस्सा है कि हम अपनी पूरी उर्जा को संग्रहित कैसे करें और इसे सही दिशा में कैसे लगाएँ । आज की चर्चा का विषय केंद्र और परिधि का तालमेल ऊर्जा के संग्रहण के बारे में है ।

सामान्य अर्थों में केंद्र और परिधि एक दूसरे के पूरक हैं । फिर भी कहीं ना कहीं हम केंद्र को महत्व देते हैं । परिधि को एक बाहरी परत माना जाता है । अब हम आध्यात्मिक संदर्भ में केंद्र और परिधि को समझने का प्रयास करते हैं, ख़ासकर ध्यान के संदर्भ में । हम एक उदाहरण लेते हैं : विपश्यना ध्यान करते समय साँस पर अपना ध्यान केंद्रित करना होता है । विपश्यना हम पद्मासन में कर सकते हैं या शवासन में । हम चलते वक़्त अपनी साँसों पर ध्यान केंद्रित कर सकते हैं । हम कुछ भी करते वक़्त ध्यान साँसों पर केंद्रित कर सकते हैं । जो केंद्रित करने वाला साक्षी है हमारे अंदर का वही हमारा केंद्र है, वही हमारी चेतना है । यानि केंद्र क्या है ? हमारी चेतना । और परिधि क्या है ? हमारा शरीर । दूसरे अर्थों में केंद्र है भाव और शरीर है अभिव्यक्ति । केंद्र है अमूर्त ‘abstract’ और शरीर है मूर्त ‘concrete’। केंद्र है निराकार और परिधि है साकार । विपश्यना में साक्षीत्व भाव हमारा केंद्र होता है । ये साक्षीत्व भाव हमारी चेतना से प्रस्फुटित होता है । विपश्यना के समय शरीर किसी भी मुद्रा में हो सकता है और आप साक्षी बने रहते हैं । मुद्रा बहुत महत्वपूर्ण नहीं होती है, साक्षीत्व महत्वपूर्ण होता है, जागरण महत्वपूर्ण होता है । आप अवेयर हैं ये महत्वपूर्ण होता है ।

आइये अब ये समझें कि ध्यान शरीर से कैसे संबंधित होता है । यदि आपने कभी पद्मासन या सिद्धासन किया है तो आपने एक चीज़ गौर की होगी: जब आप पद्मासन में बैठते हैं तो आपकी रीढ़ की हड्डी बिलकुल सीधी होती है । तो यदि आप कुछ समय इस मुद्रा को साध सकें, इसमें रह सकें, तो आप एक बात महसूस करेंगे कि आपका शरीर बिलकुल हल्का हो गया । यदि आप आँख बंद कर लें उस मुद्रा में तो कुछ समय बाद आपको ऐसा लगने लगेगा जैसे आप हैं ही नहीं । यानि आप उर्जा मात्र हैं, बिलकुल ही भारहीन । बस शुद्ध चेतना । इसका अर्थ है कि शरीर पर अर्थात परिधि पर काम करके भी आप चेतना से जुड़ सकते हैं । पद्मासन में बैठ कर विपश्यना करने का दुगना फायदा होता है: एक तो साक्षीत्व भाव गहराता है, दूसरा जब ऊर्जा सहज, सुलभ रूप से बह रही होती है तो ध्यानी एक शून्यता महसूस करता है । मानो वह है ही नहीं । एक अनुपस्थिति मात्र । फिर भी वह होता है ऊर्जा के रूप में । ये ऊर्जा के रूप में होना साक्षीत्व को और गहरा करता जाता है । इसके उलटे यदि आप विपश्यना शवासन में करें, तो शरीर को तो सुविधा हो जाती है, शरीर को कोई दुख तकलीफ़ नहीं होती, लेकिन बहुत बार ऐसा होता है कि ध्यानी सो जाता है, तंद्रा उसे घेर लेती है, एक बेहोशी सी आ जाती है, और शवासन करते-करते वह निद्रासन में पहुँच जाता है । जैसे ही आप निद्रा में डूबे विपश्यना ख़त्म हो जाता है । अर्थात, विपश्यना चेतना को और जगाएगा यदि आप उसे पद्मासन से जोड़ कर करना शुरू कर दें । दूसरे अर्थों में, केंद्र और परिधि के मिलन से चेतना का जन्म होगा । इस बात को फिर से दोहराता हूँ : विपश्यना को पद्मासन और शवासन दोनों में करके देखिये । आप स्पष्ट अंतर देख पाएँगे । आप प्रयोग करके देखिए । विपश्यना आप शवासन में करिये । या तो आप निद्रा में चले जाएँगे या आप जब विपश्यना से बाहर आएँगे तो आपको शरीर बहुत ही भारी महसूस होगा । इसके उलटे यदि आप विपश्यना पद्मासन या सिद्धासन में करें तो आपको एक ऊर्जा महसूस होगी, एक हल्कापन, एक आनन्दायी हल्कापन, जैसे आपके पंख लग गये हों और आप उड़ते जा रहे हों । शवासन में भी विपश्यना करने के अपने फ़ायदे हैं । लेकिन शुरू-शुरु में ये निद्रा में ही लेकर जाता है ।

केंद्र और परिधि का तालमेल बनाना है ध्यान के लिये । ये तालमेल बहुत ही आवश्यक होता है क्योंकि जो शरीर के तल में जी रहा है, उसे शुरुआत शरीर से ही करनी होगी । जिसने शरीर के पार का कुछ जाना नहीं है वह शरीर की सीमाओं से इतनी जल्दी मुक्त नहीं हो सकता । पहले शरीर को साधना है, इसे प्रशिक्षित करना है । फिर एक बार यदि शरीर सध गया, तब आप किसी भी आसन में, चाहे वो पद्मासन हो, चाहे शवासन हो, में ध्यान कर सकते हैं ।

एक और विधि है शरीर को साधने की - चलना । चलना एक बहुत ही साधारण सी, दैनिक जीवन की एक विधि है । हममें से ज़्यादातर लोग बहुत जल्दी-जल्दी चलते हैं, मानो कोई दौड़ की प्रतिस्पर्धा चल रही हो । थोड़ा ध्यान से देखिये अपने आसपास के लोगों को । हर कोई भागता सा नज़र आता है । यदि आप थोड़ा सा जाग कर, होश में देखें अपने आपको, अपने चलने को बस देखें, होश में, कुछ भी नहीं करना है बस देखना है कि मैं चल रहा हूँ, उसी क्षण आपकी चलने की गति धीमी हो जाएगी । आप विश्राम में होंगे । इसका क्या अर्थ है ? इसका अर्थ ये है कि जब कभी हम होश में होते हैं, हम विश्राम में होते हैं; जब बेहोश होते हैं, तब अधीर होते हैं, तब जीवन में भाग-दौड़ बहुत होती है । स्पष्ट है कि विश्राम हमारी सहज अवस्था है ।

आमतौर पर लोग बड़े अस्त-व्यस्त से हैं, बड़े उलझे हुए, बहुत बेचैन हैं । कारण ? हर वक़्त भागने की आदत । अंधाधुंध गाड़ी चलाए जा रहे हैं । कितनी जल्दी है पहुँचने की ! घर से ऑफिस, ऑफिस से घर, हर वक़्त बस दौड़ ! अब कुछ लोग, वास्तव में ज़्यादातर लोग, ऑफिस से निकलते ही रॉकेट की गति से अपनी कार चलाते हैं, ताकि जल्दी घर पहुँच जाएँ । और घर पहुँच कर उन्हें समझ नहीं आता कि क्या करें । फिर टी वी चालू करके बैठ जाते हैं । कोई समाचार देखने लगता है, कोई राजनीतिक बहस, तो कोई फुटबॉल, क्रिकेट, कोई कुछ, कोई कुछ । टी वी देखने में ही समय नष्ट करना था तो इतनी तेज़ गाड़ी क्यों चलाई ? अजीब पागलपल में फँसे हैं लोग ! कितनी बेचैनी है ! ये बेचैनी और पागलपन का एक सटीक उदाहरण ट्राफिक जाम में मिल जाएगा । कितने झटपटाते हैं लोग ट्राफिक जाम में ! हॉर्न पर हॉर्न बजाते हैं । दिख रहा है कि जाम है इसीलिए गाडियाँ धीमे-धीमे चल रही हैं । फिर भी... ! उन्हें लगता है कि आगे वाली गाड़ी का चालक शायद सो गया है । ट्राफिक जाम या ऐसी ही किसी परिस्थिति का उपयोग विश्राम में उतरने के लिए करिए । बस अपनी साँसों को देखिये । शांत होकर बैठिए । मौन में उतरिए ।

आगे, शरीर पर संयम साधने के लिए खान-पान की आदतों पर विशेष ध्यान देना होगा । हमारी भूख का एक बहुत बड़ा हिस्सा मानसिक है । हमारी भूख शारीरिक कम है मानसिक ज़्यादा है । यदि हम मन की सुनते रहें तो अपने आप को नुक़सान पहुँचाते रहेंगे । एक बार मैं एक स्वागत समारोह में शामिल हुआ । वहाँ खाने-पीने का भी प्रबंध था । अन्य कार्यक्रमों के बाद, सब लोग खाने लगे । मैं भी भोजन स्थल की तरफ़ बढ़ने लगा तो अचानक होश के एक क्षण में मैंने ये महसूस किया कि भूख तो मुझे है ही नहीं । मैंने दोपहर का भोजन कर लिया था और उसके कुछ समय बाद ही दावत शुरू हुई थी । तभी मैं रुक गया । जैसे ही मैंने रुककर विश्राम में अपने आप को देखा तो ये चीज़ मुझे समझ आई कि वो जो भूख थी वो तो मन की भूख थी, जीभ लालायत थी । बस ये देखा ही था कि मानसिक भूख अपने आप समाप्त हो गई । शरीर को तो चहिए नहीं था कुछ । दावत ख़त्म हो जाने के बाद ये चीज़ मैंने देखी कि केवल जीभ को थोड़ा सा ख़ुश करने के लिए मैं काफ़ी सारी चीज़ें अपने पेट में भर लेता । जीभ का काम तो ख़त्म हो जाना था दो मिनट में, लेकिन जो बोझ मैंने भर लिया होता अपने अंदर वो शरीर के लिए एक पीड़ा बन जाता । शरीर को उसे पचाना पड़ता । भोजन ज़्यादा होता तो निद्रा ज़्यादा आती । और निश्चित रूप से इससे केंद्र भी प्रभावित होता क्योंकि निद्रा यानि बेहोशी । और इसके उलटे जब मैंने नहीं खाया, मैं हलका महसूस कर रहा था, नींद नहीं आ रही थी, होश में था । लेकिन हमें दमन से भी बचना है । यदि भूख लगी है तो खा भी सकते हैं । लेकिन ये देखिए कि क्या वो शारीरिक भूख है या मानसिक भूख है । और इतनी समझ, इतना होश तो अस्तित्व ने हमें दिया ही हुआ है कि थोड़ा रुक के देख तो लें कि सभी खा रहे हैं इसलिए हम खा रहे हैं या हम इसलिए खा रहे हैं क्योंकि वाक़ई हमें उसकी ज़रूरत है ।

किसी भी काम को यदि आप होशपूर्वक देखने लगें तो देखेंगे कि आप विश्राम में पहुंचने लगते हैं, धीरे-धीरे उस काम को करने लगते हैं । विश्राम में काम करते हैं । अब होश में होना यानी चेतना में होना । जैसे ही आप चेतना में होते हैं आप देखते हैं कि आप विश्राम में पहुँच गये, यानी केंद्र पर काम करेंगे तो शरीर जो कि परिधि है वो विश्राम में पहुँच जाएगा । और इसके उलटे यदि आप शरीर को यानी परिधि को विश्राम में रखेंगे, तो आप देखेंगे कि केंद्र धीरे-धीरे विश्राम में पहुँचने लगा । तो छोटी-छोटी सी चीज़ें हैं - चलना, खाना, उठना, बैठना । कोई भी काम जितने विश्राम में कर सकें, उतना विश्रामपूर्वक करिए । धीरे का मतलब आलस्य नहीं है, धीरे का मतलब नींद में कोई काम नहीं करना है । धीरे का मतलब है शांत होकर, धैर्यपूर्ण । तो शरीर का विश्राम केंद्र को शांत करेगा, मौन लाएगा, गहराएगा और केंद्र का ध्यान, केंद्र का विश्राम शरीर को शांत करेगा । ये तालमेल केंद्र और परिधि का, ये ट्यूनिंग, ध्यान के लिए बहुत ही आवश्यक है । यदि हम शरीर की अवहेलना करते रहेंगे, इसकी आवश्यकताओं को अनदेखा करते रहेंगे, तो फिर केंद्र कभी जाग नहीं पाएगा ।

एक ध्यानी को इन सारी चीज़ों के प्रति सचेत रहना पड़ेगा, सजग रहना पड़ेगा । उसे परिधि और केंद्र के बीच संतुलन बनाना होगा । उसे शरीर और चेतना का तालमेल बैठाना होगा ।